ਕੈਟੇਗਰੀ

ਤੁਹਾਡੀ ਰਾਇ



ਇੰਦਰਜੀਤ ਸਿੰਘ ਕਾਨਪੁਰ
ईश्वर का घर कहाँ है ? वह कहाँ रहता है ?
ईश्वर का घर कहाँ है ? वह कहाँ रहता है ?
Page Visitors: 2764

ईश्वर का घर कहाँ है ? वह कहाँ रहता है ?
इस स्रष्टि के रचनाकार और पूरी स्रष्टि के जीवों का मालिक " एक" ही है । हम उसे अल्लाह, करतार, ईश्वर, परमेश्वर , अकालपुरख आदि अनगिनत नामों से पुकारते हैं । उसके नाम भले ही अनेक हों, लेकिन वह है "एक" ही ! हर धर्म और समाज उसके अस्तित्व और प्रभुसत्ता को मानता है , और इसी लिये कहा जाता है कि ,"सभ का मालिक एक है " ।
वह सारे जीवों का मालिक जिसे रब्ब कहो या करतार । ईश्वर कहो या भगवान वह "एक" और "निराकार" है । उसका कोई शरीर या आकार नही है । सारी दुनियाँ का वह इकलौता मालिक अमूर्त (abstract) है । उसको महसूस तो किया जा सकता है, उस का एहसास तो किया जा सकता है, लेकिन उसको देखा नही जा सकता । उस निरँकार को ना मानने वाले ,यह तर्क भी देते हैं कि ,अगर ईश्वर नाम की कोई चीज़ है , तो वह दिखाई क्यों नही देता ? वह हमारे पुकारने बुलाने पर भी सामने क्यों नही आता ? कभी कभी तो यह लोग ईश्वर को मानने वालो से यहाँ तक कह देते हैं कि ,"ईश्वर और अनिष्ट का डर ही तुम्हें यह मानने के लिये मजबूर कर देता है कि ईश्वर है । अगर ईश्वर होता तो तुम्हारे मानने वालों के कहने पर तो एक बार सामने आकर खड़ा हो सकता था !
एैसे ही एक वीर से मेरी मुलाकात हुई , कुछ और वीर भी बैठे हुये थे । बहुत देर से वह करतार के ना होने पर बहस कर रहा था । जब वह किसी बात पर सँतुष्ट नही हुआ ,तो मैने उससे कहा ," मेरे भाई ! अगर मैं आपका नाक और मुँह थोड़ी देर के लियेेेे बँद कर दूँ तो क्या होगा ? वह फौरन बोला, "मेरी साँस रुक जायेगी और मैं मर जाँऊगा ।" मैने कहा, " बिलकुल ठीक , जिस हवा से हम साँस लेते हैं और हमारा जीवन चलता है, वह भी दिखाई नहीं देती, लेकिन वह हर जगह मौजूद तो है । भले ही उस जीवन देने वाली हवा को देखा नही जा सकता, लेकिन उसके अस्तित्व को नकारा भी तो नही जा सकता क्योकि वह अमूर्त है, उसका कोई आकार नही है ।
मेरे भाई ! इसी तरह उस निराकार करतार, जो अमूर्त है, को भले ही देखा नही जा सकता, लेकिन उसका एहसास किया जा सकता है । उसको अपने बहुत करीब से महसूस किया जा सकता है । सिर्फ जरूरत है उस ज्ञान की जो हमें अपने समर्थ और सच्चे गुरू द्वारा ही प्राप्त होता है । तितली के पँखों पर बनी चित्रकारी, अलग अलग फूलों के रँग और अलग अलग खुशबू , कुदरत की व्यवस्थित बनावट , जल और थल के करोड़ो सुँदर जीव जँतु और उन सभी के जीवन का प्रबँध , यह सभ उसके अस्तित्व को साफ साफ दर्शाते है, और यह साबित करते है कि ,इस कुदरत का करता (Creator ) और उसको व्यवस्थित रूप से चलाने वाली कोई शक्ति तो मौजूद है । यह बात अलग है कि हमारे मन पर विकारों और अज्ञानता की मैल इस कदर चड़ चुकी है कि हमें उस मालिक का एहसास ही नहीं हो पाता ।
गुरू ग्रँथ साहब को अपना एक, समर्थ और सच्चा गुरू मानने वाले सिक्ख का अध्यात्मिक जीवन ही
"ੴ" ,अर्थात "एक निरँकार " प्रभु के अस्तित्व और वर्चस्व को स्वीकारने के साथ ही शुरू होता है ।
 ੴ सति गुर प्रसादि
 दूसरे धर्मों की तरह गुरू ग्रँथ साहिब किसी व्यक्ति विशेष या किसी महापुरुष का कथा कथानक नहीं है । गुरू ग्रँथ साहिब एक निरँकार करतार के अस्तिव को स्वीकार करते हुये, उसके बनाये नियमों के अनुसार जीवन जीने का विधि विधान है । उस निरँकार के अस्तित्व को स्वीकार करते हुये गुरूवाणी उस मालिक को हर जीव की प्रतिपालना करने वाला "दाता" अर्थात सभ कुछ उपलब्ध करवाने वाला भी कहा गया है । वह हर जीव को बिना किसी भेदभाव के पालता और देता है ।
सभु जीउ पिंडु मुखु नकु दीआ वरतण कउ पाणी ॥
 अंनु खाणा कपड़ु पैनणु दीआ रस अनि भोगाणी ॥
जिनि दीए सु चिति न आवई पसू हउ करि जाणी
॥३॥
सभु कीता तेरा वरतदा तूं अंतरजामी ॥
हम जंत विचारे किआ करह सभु खेलु तुम सुआमी ॥
जन नानकु हाटि विहाझिआ हरि गुलम गुलामी
॥४॥६॥१२॥५०॥ अँक १६७
यहाँ हमारा विषय उस भगवान के होने या ना होने के बारे में नही था बल्कि हमारा विषय तो उस "करतार के घर" के बारे में जानकारी हासिल करना था , कि वह रहता कहाँ है ? यह स्पष्ट है कि हमारा मालिक अमूर्त और निराकार है , तब तो यह भी निश्चित है कि उस निराकार प्रभु का निवास स्थान भी निराकार ही होगा ! हाँ उस निराकार प्रभु का घर हमारा अपना मन ही है ।गुरू ग्रँथ साहिब की वाणी में जगह जगह पर यह स्पषट किया गया है कि उस परमेश्वर का घर हर जीव का मन (चिन्तन,सोच) ही है ।
यह मन क्या होता है ? इस मन का भी कोई स्थूल / मूर्त जा (Physical) आकार नही होता । हमारी सोच, हमारा चिन्तन , हमारा मानसिक क्षेत्र एवं पसारा ही हमारा मन कहलाता है । इसका भी कोई आकार नही होता । यह भी उस प्रभु की तरह सर्वव्यापी और दूरगामी है। हमारा मन, हमारी सोच एक क्षण मैं कही से कही भी पहूंच सकती है । अब कोई नास्तिक यह कहे कि हमारी सोच हमारा मन तो दिखता नही है , लेकिन यह भी सच्च है कि हमारा जीवन , हमारे जीवन के सारे कार्य व्यव्हार हमारी सोच और मन द्वारा ही सँचालित होते हैं । वह सदैव हमारे मन और हमारी सोच में निवास करता है ।गुरूवाणी में स्थान स्थान पर हमारे "मन" को "घर" कह कर सँबोधित किया गया है , कहीं भी गुरवाणी में वर्णित उस "घर" का अर्थ हमारे उस घर से नही जहाँ हम और हमारा परिवार रहता है । आईये गुरवाणी की रौशनी में उस मालिक के निवास स्थान को समझने की कोशिश करते हैं।
करि किरपा घरि आइआ आपे मिलिआ आइ ॥
गुर सबदी सालाहीऐ रंगे सहजि सुभाइ
॥अँक 32
बाहरि राखिओ रिदै समालि ॥ घरि आए गोविंदु लै नालि ॥१॥ अँक १९७
मेरी इछ पुनी जीउ हम घरि साजनु आइआ ॥
मिलि वरु नारी मंगलु गाइआ
॥अँक 242
मेरे मन परदेसी वे पिआरे आउ घरे ॥
 हरि गुरू मिलावहु मेरे पिआरे घरि वसै हरे
॥ अँक 451
(यहाँ हर बार घरि का अर्थ मन से है )
यहां पर उस घर की कहीं बात नही की गयी है, जहां हम रहते है। यहां तो उस घर का अर्थ हमारे मन से है । यहां तो उस घर की बात चल रही है, जो हमारा मन है, जिस घर में ईश्वर रहते हैं। हमारे मन, हमारी सोच का वह क्षेत्र , जिसका कोई अकार नही । अगर उस प्रभू की क्रपा हो, और हम अपणे मन ( घर ) को उस प्रभू के रहने लायक बना सके तो वह जरूर उसमे आ कर बस सकता है। अब सवाल यह उठता है कि क्या हम अपने मन, जो उस प्रभू का घर है, उसके रहने लायक बना सके है ? नही ना ? जग जाहिर है कि दुनियाँ का कोई भी व्यक्ति गंदे स्थान पर रहना पसंद नही करेगा । फिर इतनी खूबसूरत श्रष्टि का रचनाकार हमारे गंदे मन में बसने के लिये क्यों आएगा ? हमारा मन तो ईर्षा, द्वैश, घमण्ड लालच जैसे विकारों की गंदगी से भरा पड़ा है। उस गंदले घर मे पवित्र पावन प्रभु का निवास किस तरह से हो सकता है ? हमें तो सब से पहले अपने गुरु के बताए रास्ते पर चल कर, अपने मन के संपूर्ण विकारों को गुरु के शबदों (गुरूवाणी ) दवारा धो कर साफ सुथरा बनाना होगा। फिर वह प्रभू सवयं आ कर इस घर में बस जायेगा।
हम अकसर शादी ब्याह पर मिलनी की रसम के वक्त गुरवाणी के इस शब्द को पड़ते हैं , लेकिन अँजाने में इस शब्द में आये "घरि" का गलत मतलब लगा कर गुरबाणी का अपमान ही नही करते बल्कि गुरबाणी का अनर्थ भी कर रहे होते हैं । इस शब्द को पड़ते हुये हम उन बरातीयों या समधियों से जोड़ते हुये यह भाव करते हैं कि यही वो साक सबँधी, वह साजन है ,जो आज हमारे घर पधारे हैं ।
हम घरि साजन आऐ ।। साचै मेलि मिलाऐ ।।
सहजि मिलाऐ हरि मनि भाऐ पँच मिले सुखु पाइआ।।......
पँच सबद धुनि अनहद वाजे घरि साजन आऐ
।।१।।अँक ७६४
यहाँ पर उस घर की बात है, जहाँ रब्ब रहता है
इस शब्द का भाव यह है कि , मुझे गुरू के शब्द (गुरूवाणी) नाम की वह अनमोल वस्तु प्राप्त हो गयी है, जिसके कारण मेरे मन में ज्ञान का प्रकाश हो गया है ओर मेरा साजन (ईश्वर) से मेरा मेल हो गया है । अब तो गुरू के शब्दो के अनाहद नाद मेरे मन में गूँजते रहते है । वीरो ! बताईये कि यहाँ वह घर कहाँ है, जिस घर में हम रहते हैं और वह साजन कहाँ हैं जो बरात में आये हैं ? यह तो उस साजन की बात है जो गुरू शब्दो द्वारा शुद्ध किये घर में रहने आया है ।
क्या वह रब्ब हर मनुष्य के मन में बसता है ? क्या हम उस रब्ब को अपने मन में बसा सकते हैं ? रब्ब को अपने मन में बसाने के लिये हमें अपने मन को किस तरह से सजाना और सवारना है ? हमारे शब्द गुरू की वाणीं हमारे इन सभी सवालों का जवाब हमें देती है ।
सो दरु तेरा केहा सो घरु केहा जितु बहि सरब सम्हाले ॥
 ਵਾਜੇ ਤੇਰੇ ਨਾਦ ਅਨੇਕ ਅਸੰਖਾ ਕੇਤੇ ਤੇਰੇ ਵਾਵਣਹਾਰੇ
॥ अँक 4
सवाल है ,एह प्रभु वह कैसा दर है, वह कैसा घर है , जिस में तूँ आकर बसता है ? वह कैसा घर है , जिसमे तेरे बसने से वहाँ शब्द रूपी असँख्य साज सदा के लिये बजने लगते है ?
जवाब आता है: कि पहली शर्त तो यह है कि जिस मन को तूँ अपने प्रभु का निवास बनाना चाहता है , वह सच्चा और सुच्चा हो । उस मन को गुरू शब्दों द्वारा पहले साफ सुथरा कर के पवित्र कर लो। एैसे मन को वह प्रभु हमेशां के लिये अपना स्थाई निवास बना लेगा और फिर वह हमेशां तुम्हारे पास ही रहेगा । वह तुमसे फिर कभी भी नही बिछड़ेगा।
अंतरि जिस कै सचु वसै सचे सची सोइ ॥
 सचि मिले से न विछुड़हि तिन निज घरि वासा होइ
॥१॥ अँक 27
जिस घर ( मन ) में हमेशां हमेशा सच्चे करते (creator) की कीर्ती का गायन और उसका ही विचार चलता हो । उस मन में फिर हमेशां खुशियों के गीत गाये जाते है, भाव वह मन सदा के लिये खुशीयों से भर जाता है ।
जै घरि कीरति आखीऐ करते का होइ बीचारो ॥
 तितु घरि गावहु सोहिला सिवरिहु सिरजणहारो
॥१॥ अँक 12
गुरवाणी के इन शब्दो द्वारा इस बात कि पुष्टि हो जाती है कि उस निराकार प्रभु का घर मनुष्य का अपना मन ही होता है । मनुष्य की सोच, उसका चिन्तन और उसका मानसिक क्षेत्र ही उसका मन कहलाता है जो अमूर्त (Abstract) होता है । इस मन का भी कोई आकार नहीं और उस ईशवर का भी कोई आकार नही ।ना मन का कोई अोर छोर है , ना प्रभु का कोई अोर छोर आंज तक जान रसका है । उस प्रभु का पसारा भी बेअँत है, और इस मन का पसारा भी बेअँत है । मनुष्य का मन, और उसकी सोच एक पल में कहाँ से कहाँ पहँच जाती है । इसी प्रकार रब्ब भी एक पल में हर जगह पहुँच जाता है अर्थात वह सवामी भी सर्वगामी और सर्व व्यापक है । बेअँत रब्ब का घर भी बेअँत है । ੴ तो हमारे मन रूपी घर में ही मौजूद है ।हम उसे कहाँ डूँडते फिर रहे हैं ? कसूर तो हमारा खुद का है , जो अज्ञानता और विकारों के अँधेरे में हम उसको महसूस ही नही कर पाते । यह अज्ञान का अँघेरा हमारे अँदर गुरू शब्दो के दीपक जलाने से दूर होता है, हमने यह प्रयास कभी किया ही नहीं । जरा कोशिश करके तो देखो ! वह तुमसे दूर नही है ,बस एक हाथ की दूरी पर ही वह निवास कर रहा है ।गुरू शब्दो का प्रकाश अपने मन में करने भर की देरी है, उसकी उपस्थिती का एहसास तुम्हे तुरँत हो जायेगा ,और तुम्हारा जीवन हमेशां के लिये खुशियों से भर जायेगा।
सरबे एकु अनेकै सुआमी सभ घट भोगवै सोई ॥
 कहि रविदास हाथ पै नेरै सहजे होइ सु होई
॥४॥१॥ अँक 658
तू भरपूरि जानिआ मै दूरि ॥जो कछु करी सु तेरै हदूरि ॥
 तू देखहि हउ मुकरि पाउ ॥तेरै कमि न तेरै नाइ
॥२॥ अँक 25
इंदरजीत सिंह, कानपुर   
 

©2012 & Designed by: Real Virtual Technologies
Disclaimer: thekhalsa.org does not necessarily endorse the views and opinions voiced in the news / articles / audios / videos or any other contents published on www.thekhalsa.org and cannot be held responsible for their views.